...और कुछ अपनी
हिन्दी में ‘‘बनफूल’’ की कहानियों का अनुवाद बहुत कम हुआ है। कारण नहीं पता। सम्भवतः उनका शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास अनुवाद को कठिन बनाता है। मैंने अनुवाद करते समय कहानियों को ‘हिन्दी कहानी’ बनाने के साथ-साथ उनके शब्द-चयन तथा वाक्य-विन्यास को कायम रखने की कोशिश की है। अब यह हिन्दी पाठकों को पसन्द आये, तो बात बने।
इस अनुवाद के प्रकाशित होने पर मुझे ऐसा लगता है, मैं अपने पिताजी की एक (अनकही) इच्छा को पूरी कर रहा हूँ। वे ‘‘बनफूल’’ के भक्त रहे हैं और ‘प्रथम शतक’ वाली मूल पुस्तक उन्होंने ही मुझे दी थी।
मेरे हस्तलिखित अनुवादों को कम्प्यूटर पर टाईप करने में जहाँ मेरी पत्नी अंशु का योगदान रहा है, वहीं मुखपृष्ठ की डिजाइन में मेरे चौदहवर्षीय बेटे अभिमन्यु का योगदान रहा है।
कहानियों के लिए चित्रांकन जयचाँद दास ने किया है; हालाँकि मैं उन्हें धन्यवाद नहीं दे सकता, क्योंकि कहते हैं कि 'दोस्ती में 'धन्यवाद' वर्जित होता है'।
आवरण पर ‘‘बनफूल’’ का जो व्यक्तिचित्र (पोर्ट्रेट) है, उसे मैंने एक बॅंगला अखबार के रविवारीय परिशिष्ट (दिनांकः 11 जुलाई 1999) से स्कैन किया है। यह एक तैलचित्र की तस्वीर है, जिसके चित्रकार ‘रिण्टु राय’ हैं।
आवरण की दूसरी तस्वीर में लिलि प्रजाति का जो एक जोड़ा सफेद फूल दीख रहा है, वह हमारे घर के पिछवाड़े में बरसात के दिनों में खिलता है। बहुत ही मादक सुगन्ध होती है इन फूलों की, जो सन्ध्या के समय फैलती है। पिताजी याद करते हैं कि हमारे बिन्दुवासिनी पहाड़ पर रहने वाले सन्यासी ‘‘पहाड़ी बाबा’’ ने इस फूल का नाम ‘‘भूमिचम्पा’’ बताया था। मुझे लगा- इस फूल को ‘जंगल के फूल’ का प्रतीक माना जा सकता है।
पिछले आवरण पर मनिहारी स्थित उस घर के दो छायाचित्र हैं (अलग-अलग कोणों से), जहॉं ‘‘बनफूल’’ का जन्म हुआ था। मनिहारी में ही रह रहे ‘‘बनफूल’’ के सबसे छोटे भाई श्री उज्जवल मुखोपाध्याय ने इस घर को एक स्मारक की तरह सहेज कर रखा है।
चूँकि हिन्दी के पाठकों के बीच ‘‘बनफूल’’ आज भी एक अनजाना-सा नाम है, और उनकी अपने ढंग की अनूठी कहानियाँ हिन्दी साहित्य में लोकप्रिय नहीं हैं, इसलिए अनुवाद के इस संग्रह का नाम ‘‘जंगल के फूल’’ रखा जा रहा है...
...और इन फूलों के गुलदस्ते को पुस्तक के रुप में आपके हाथों तक पहुँचाने का बीड़ा उठाकर अरूण रॉय जी ने बेशक एक सराहनीय कार्य किया है। मैं उनका आभारी हूँ।
आशा है, कहानी रूपी इन फूलों के रस की मिठास हिन्दी के साहित्यरसिक रूपी भ्रमरों को तृप्त करेगी और इससे मुझे अगली कुछ और कहानियों के अनुवाद प्रस्तुत करने के लिए भी प्रेरणा मिलेगी...
ईति।
19 जुलाई 2011 -जयदीप शेखर