7. रामायण का एक अध्याय (रामायणेर एक अध्याय)

 

अभिनय काण्ड

सीता को वनवास भेजकर राम पत्नीशोक में उन्मतप्राय हो रहे थे। मन में केवल यही लग रहा था कि उन्होंने घोर अन्याय किया है।

कुलगुरु वशिष्ठ से वे बोले, ‘‘गुरुदेव, अन्याय- यह घोर अन्याय है। सीता का कोई अपराध नहीं है- वे निर्दोष हैं, देवी हैं। मुझे कोई अधिकार नही है उन्हें दण्ड देने का। मैंने महापाप किया है। मैं-’’

            उन्हें रोककर वशिष्ठ बोले, "वत्स, सत्य की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है। तुम सत्याश्रयी हो। सत्य धर्म का पालन कर तुमने क्षत्रियोचित कार्य ही किया है।’’

            राम बोले, ‘‘यह तो सत्य नहीं है, यह मिथ्या है। यह तो अन्याय है गुरूदेव, यह मिथ्याचार है गुरूदेव-’’

            गुरूदेव बोले, ‘‘अधीर न हो वत्स, राजधर्म बहुत ही कठिन है।’’

            रामचन्द्र कहाँ सुनने वाले थे। वे अधीर हो उठे।

            ‘‘राज्य नहीं चाहिए, ऐश्वर्य नहीं चाहिए, प्रजा की मतामत की मुझे चिन्ता नहीं- मुझे सीता चाहिए। मुझे मेरी देवी चाहिए। राज्य चला जाय, मान-सम्मान चला जाय-’’

            राम पागल हो उठे।

 

-दो-

            अभिनेता नकुड़ माईति जब राम का अभिनय समाप्त कर रात्रि के अन्तिम प्रहर में घर लौटे, तब उनके कदम लड़खड़ा रहे थे- शराब के नशे में चूर।

            थोड़ी देर दरवाजा खटखटाने के बाद स्त्री हरिमति के दरवाजा खोलते ही नकुड़बाबू बोले, ‘‘हरामजादी, आधे घण्टे से दरवाजा पीट रहा हूँ, होश नहीं है?’’

            हरिमति बोल°, ‘‘आँख लग गयी थी जरा।’’

            नकुड़बाबू बोले, ‘‘फिर जुबान लड़ाती है!’’

            कहते ही एक लात... रामलात।