6. अद्वितीया

 

यंत्रचालित-सा विवाह-अनुष्ठान चलने लगा। सिन्दुरदान के समय दुल्हन ने घूँघट नहीं ही हटाया। संझली’दी बोलीं- बहुत शर्मीली है। कोहर में भी सुना- बहुत शर्मीली है। सर से लेकर पाँव तक ढाँपकर करवट लेकर सोती रही। मैं भी सोया। संझली’दी ने भीड़ इकट्ठा होने नहीं दिया था। इसके अलावे दूसरी शादी का मामला था, कौन जश्न मनाना चाहेगा भला? लड़की का अपना बोलकर कोई न था। दूसरों के घर पली-बढ़ी थी। शादी संझली’दी के घर में ही हुई थी- इसलिए देखा जाए तो वे ही कन्यापक्ष थीं। कुल-मिलाकर, विवाह-उत्सव में मजा नहीं आया।

मजा तो आया सुहागरात की रात।

दिल में बहुत-सी आशा-आशंकाएँ लिए कमरे में प्रवेश कर देखा, मेरे छः बच्चों और एक नवजात शिशु को लेकर स्वयं प्रभा पलंग पर बैठीं थीं। कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा?