13. नकारे की आत्मकथा (अक्षमेर आत्मकथा)

 

और एक दिन की बात है। वह औंधे मुँह लेटी हुई थी। मैं पास ही था। निर्जन द्विप्रहर। वह एक किताब पढ़ रही थी। मैं मुग्ध होकर उसे देख रहा था। अपूर्व शरीर था उसका- जैसे एक प्रस्फुटित शतदल। परिपूर्ण यौवन नदी शरीर के उभारों पर उद्दाम हो रही थी। वस्त्र आवरण उसे पूरी तरह ढक पाने में असमर्थ हो रहे थे। उसके यौवन का स्पर्श पाकर वह तुच्छ साड़ी धन्य हो गयी थी। साड़ी की चौड़ी लाल किनारी कुछ मर्मान्तिक ढंग से लाल दीख रही थी। अन्यमनस्क होकर उसने हाथ मेरे ऊपर रखा। मेरे समस्त शरीर में एक विद्युत प्रवाह दौड़ गया- इसे वह समझ पायी?

नहीं समझ पायी।

मेरे पास भी बताने की भाषा नहीं थी।