20. दर्जी

 

 उफ्, इतना काम, सॉंस लेने की फुर्सत नहीं।

                मशीनों की खिचखिच से खुद ही विरक्त होने लगा हूँ, किन्तु कोई उपाय नहीं है, कल सुबह तक ढाई सौ झण्डे बनाकर देने ही होंगे। इस खिचखिच में आमदनी छुपी हुई है, बस यही एक सान्त्वना है।

                निर्मल ने प्रवेश किया। परिचित छोकरा है, यहीं के कॉलेज में पढ़ता है। मुझसे ही कुर्ता-पायजामा सिलवाता है।

                निर्मल बोला, ‘‘शिशिर’दा, हमारे कॉलेज यूनियन के लिए पचास ट्राइकलर फ्लैग चाहिए!’’

                ‘‘मुझे भाई फुर्सत नहीं है, कहीं और देख लो।’’

                ‘‘किसी को फुर्सत नहीं है, सबके पास गया था।’’

                ‘‘सभी फ्लैग बना रहे हैं?’’

                ‘‘हॉं सभी।’’

                बात झूठी नहीं थी। शहर के सभी दर्जी व्यस्त थे।

                ‘‘मेरे पास लेकिन भाई समय नहीं है। चार कारीगर लगा रखा हूँ- फिर भी किनारा नहीं मिल रहा-’’

                ‘‘मुझे लेकिन चाहिए ही। कहिए तो ज्यादा चार्ज दूँगा।’’

                ‘‘डबल देना पड़ेगा।’’

                ‘‘ठीक है।’’

                निर्मल तत्क्षणात् राजी हो गया।

                सारी रात काम करना होगा- उपाय नहीं है।

                महात्मा गॉंधी कल इस स्टेशन से होकर ‘पास’ करेंगे। शहरभर के लोग तिरंगा कॅंधे पर रखकर उनका स्वागत करने जायेंगे।

 

-दो-

दो साल बाद।

आज फिर सॉंस लेने की फुर्सत नहीं है। आज भी लगातार चल रही मशीनों की खिचखिच से विरक्त हो रहा हूँ और निरुपाय होकर इसे बर्दाश्त कर रहा हूँ। आज भी वही बात है, कल सुबह तक ढाई सौ झण्डे बनाकर देने हैं।

आज भी निर्मल आकर हाजिर हुआ।

वही बात।

‘‘शिशिर’दा, हमारे कॉलेज यूनियन के लिए पचास फ्लैग चाहिए।’’

मैंने भी वही उत्तर दिया।

‘‘मेरे पास भाई फुर्सत नहीं है, कहीं और जाओ।’’

उत्तर में निर्मल ने दो साल पहले जो कहा था, वही कहा- ‘‘किसी को फुर्सत नहीं है, सबके पास गया था। हमें बनाकर देना ही होगा- कहिए तो ज्यादा चार्ज दूँगा।’’

पहले जैसा सुयोग समझकर मैंने डबल मेहनताना मॉंगा।

निर्मल पहले की तरह राजी हो गया।

घटना भी पहले-जैसी ही है- महात्मा गॉंधी कल इस स्टेशन से होकर ‘पास’ करेंगे। शहरभर के लोग झण्डा कॅंधों पर लेकर स्टेशन पर हाजिर रहेंगे। सबकुछ एक जैसा है, थोड़ा-सा अन्तर है। इस बार तिरंगा झण्डा नहीं, काला झण्डा होगा।

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(टिप्पणी: 1939 में गाँधीजी ने नेताजी सुभाष को काँग्रेस का अध्यक्ष मनोनीत किया। अगले साल जब नेताजी ने देखा कि किसी प्रगतिशील विचार वाले को अध्यक्ष मनोनीत नहीं किया जा रहा है, तो उन्होंने स्वयं दुबारा अध्यक्ष बनना चाहा। गाँधीजी द्वारा मनोनीत पट्टाभि सीतारामैया के खिलाफ चुनाव जीतकर नेताजी दुबारा अध्यक्ष बने। इस पराजय को अपनी पराजय मानकर गाँधीजी ने कार्यसमिति के सदस्यों से इस्तीफा दिलवाकर नेताजी के लिए काम करना मुश्किल कर दिया। अन्त में, यह कहते हुए कि जब देश के सबसे महान व्यक्ति का ही समर्थन उन्हें हासिल नहीं है, तो यह पद बेकार है, नेताजी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। प्रायः डेढ़ साल के अन्दर घटी इन दोनों घटनाओं के प्रति बंगवासियों के मन में जो प्रतिक्रियायें उत्पन्न
हुई होंगी, सम्भवतः उन्हीं प्रतिक्रियाओं को इस कहानी में अभिव्यक्ति दी गयी है। -अनुवादक)